Sunday, November 21, 2021

सफ़र के बाद

 देर गुज़र के सफ़र के बाद

मिला हैं तर्जुबा एक असर के बाद,

खुली जो आँख तो होश आया

था फिर वहीं ख़्वाब सहर के बाद,

एक खुशनुमा गहरी सांस के लिए

तरस जाएंगे आखरी शजर के बाद,

लौट के जाएं भी तो भला कैसे

कौन दिखायेगा राह हमसफ़र के बाद,

बस यही शायद अब बची हैं एक उम्मीद

मिल जायेंगी मंज़िल इसी समर के बाद । 





Friday, May 1, 2020

थोड़ा और ...

सबको थोड़ा और चाहिए,
वक्त, इज्ज़त, पैसा, आराम, शोहरत
थोड़ा और..!
कुछ ना कुछ और पाना है
जो है उस से थोड़ा और,
बहुत कुछ खोकर बस थोड़ा और,
सब कुछ अगर दाव पर लगे तो चलेगा,
पर कुछ और,
ये कुछ और का सिलसिला कभी ख़तम नहीं होता,
और बढ़ता रहता है अपनी ही गती से,
ये जो सिलसिला है,
स्वभवतः इसको कुछ नहीं करना है हासिल,
बस चाह बढ़ानी है, भोगी की,
इसको दरियां पार नहीं करना,
बस गोते लगाते रहना हैं,
कुछ देर और,
और गहराई में,
जब थोड़ा थोड़ा कर बहुत कुछ मिल जाता हैं,
तो नज़र खोजती रहती है, जों नहीं मिला उसे,
जो मिला उसके परे, अलग, पार,
ढूंढ़ती रहतीं है कुछ और,
आज का आनंद खो जाता है,
उस कुछ और में जिसके मिल जाने पर भी कभी कोई
समाधान नहीं होगा आंनद नहीं होगा,
सबको थोड़ा और चाहिए, कुछ और ...!


याद आयेगी

हो गई एक रूह आज़ाद, याद आएगी
है बाकी कुछ बात, मुलाक़ात याद आएगी,

उड़कर पंछी पिंजरे से आसमां में खो गया,
जो संग गुजरी रात-ए-जज़्बात याद आएगी,

तुमसे मिलने जुलने का सिलसिला रहे जारी,
मगर, तुम्हारे जाने की हर बात याद आएगी,

(इरफ़ान खान की याद में)

अफ़वाह

क्या बुरा हैं अगर ये अफ़वाह उड़ा दी जाएं,
की पानी मिलेगा स्वच्छ और ताज़ा
जब तक ये दुनिया कायम है,
और मिलेगी रूहानी हवा
जब तक सांस महफूज़ हैं,
सबको मिलेगा काम और रोज़गार,
नहीं जाना पड़ेगा स्कूल के बाहर
अगर नहीं भी हैं पैसे तो,
और होगा इलाज़
हर बीमारी का सभी का बराबर,
मिलेगा एक आसरा सभी को
और ना सोएगा कोई भी भूखा कभी,
ना होंगे कहीं पर भी दंगे और फसाद
मज़हब के नाम पर,
और ना होगा कहीं पर भी
भेदभाव किसी बुनियाद पर,
ना होगा भ्रष्टाचार
और ना किसी पे अन्याय होगा,
जो भी होगा सबके सामने
खुला खुला व्यवहार होगा,
सब को मिलेगा मौका
जीने का अपने अपने तरीकों से,
और रहेगी आज़ादी
अपनी सोच रखने की,
और कभी किसी को
ना परखा जाएगा
उस की सोच से,
होगी शामिल दुनियां भी
सभी के सुख और दुख में,
और ना किसी के हक
पर गाज कोई आएगी,
सब कुछ ठीक हो जाएगा
इस लॉकडॉउन के बाद
रहेंगे मिल जुल कर
और देंगे सभी का साथ,
किसी से जान से बढ़कर
और कोई भी बात ना होगी,
फिर शायद दुनियां भी
अपनी सही सलामत होगी ।
क्या बुरा हैं अगर ये अफ़वाह उड़ा दी जाएं..


(हम ’ने दूंढ लिया है लोगों के दुःख दर्द का इलाज , क्या बुरा है जो ये अफवाह उड़ा दी जाए ", ये शेर मैंने फ़िल्म घात के शुरुवात में सुना था, ये किसने लिखा है पता नहीं कर पाया।  🙏 साभार )

सत्य क्या हैं ?

क्या मैं सत्य से परिचित हूं ?
जो दिख रहा हैं आज, वो किसका सत्य हैं?
मैंने किस की बात को सत्य माना?
क्यों...?
क्या मेरा अपना अनुभव ही सत्य हैं?
क्या सत्य की सापेक्षता उसका रूप बदल देगी?
क्या किसी का प्रभाव मेरा सत्य हैं?
क्या किसी की राय मेरा सत्य हैं?
मेरा नज़रिया मेरा सत्य है?
मेरा नज़रिया बदला तो मेरा सत्य बदल जाएगा?
सत्य एक अनुभव हैं, तो मेरा कितना हैं?
लोगों को मरते देख मैं सिसक जाता हूं और
मारने की बात करता हूं, क्यों?
किसी को, गाली का ज़वाब गाली से देता हूं,
ना दू तो नपुंसक कहलाता हूं,
क्या मेरे पुरुषार्थ का अपना कोई मतलब नहीं,
सब किसी और के मतलब पर निर्धारित,
मैं भावूक, असहाय,
किसी अन्याय के ख़िलाफ़ जब आवाज़ उठाता हूं,
तो मैं किस न्याय की बात करता हूं?
किस के पक्ष में जाता हैं वो न्याय?
कैसे हो जाता हैं समाधान?
कैसे होता है समर्थन न्याय और अन्याय का?
क्या मैं सत्य से परिचित हूं ?
जो दिख रहा हैं आज वो किसका सत्य हैं?

फासला

कल और आज में एक फासला हुआ करता था,
एक रात होती थी जिसमें ख़्वाब हुआ करता था ।

पूरे आसमान की जिस से हमे पहचान होती थी,
बहुत ख़ूबसूरत सा एक चांद हुआ करता था ।

अब तो हो जाते है मायूस ज़रा ज़रा की बातों से,
सुना है किसी ज़माने में कभी ग़म हुआ करता था ।

हो जाती थी शाम तो अपने घर लौट आते थे वो भी
एक वक्त था जब परिंदों का घौसला हुआ करता था।

वो लोग अमर है, किस्सों में कहानियों में किताबों में,
देखो, जान से बढ़कर जिनका हौसला हुआ करता था।

तुम्हारा हैं क्या यहां?

तुम्हारा हैं क्या यहां ?
ये जिस्म, ये सांस, ये रूह,
ये हवा, बादल, दरिया, ये मंज़र,
चांद, सूरज, तारे, या गगन ?
अमाप, असीम, अनंत का,
कुछ अंदाज़ा है ?
तुम हो कौन?
तुम्हारा हैं क्या यहां?